है ममता की मूरत नारी, जननी तू कहलाती है;
कभी महालक्ष्मी, कभी दुर्गा तू ,घर-घर में पूजी जाती है .
दुःख दूर कर,सुख देती है, हरवक्त इरादे तेरे नेक ;
इसीलिए मैंने ये माना, नारी तेरे रूप अनेक .
जब छोटी सी गुड़िया बनकर, इस जग में तू आती है,
कहने को तो बेटी है, पर दुर्गा तू कहलाती है .
हर वक्त निगह्वां हैं रब तुझपे उनसे तू बातें करती ;
लव तेरे खामोश है रहती, पर मन ही मन मुस्काती ;
देवी तुझे नमन करता है ” दीपक ” अपनी मत्था टेक.
इसीलिए मैंने ये माना, नारी तेरे रूप अनेक .
जिस घर में तेरा जन्म हुआ, जिस आंगन में तू पली बढ़ी .
उसे छोड़ पराई हो जाती, हंसकर शूली पर चढ़ जाती .
इस जहान में शर्मों-हया की मूरत तू कहलाती है ,
रूप छोड़ कर बेटी का जब, तू पत्नित्वा में आती है .
और इसी रूप में हे देवी ,लक्ष्मी तू कहलाती है .
चाहे जितना भी वर्णन कर लूँ, अधूरी है मेरी आलेख .
इसीलिए मैंने ये माना, नारी तेरे रूप अनेक .
जब मइके की याद सताती, छुप-छुप कर तू नीर बहाती;
बाबुल से बिछुड़न के ग़म को ,खुशी-ख़ुशी सह जाती है ;
फिर भी अपने पिया का आँगन खुशियों से चहकाती है .
दे खुशियां, ग़म अपनाती बानो, कुल की लाज बचाती है ;
मेरी आखें भी नम होती है, तेरी ऐसी दशा को देख ;
इसीलिए मैंने ये माना, नारी तेरे रूप अनेक.
मह्सूस नहीं कर सकता कोई, कितना तूने दर्द सहा ( प्रसव पीड़ा );
रूप छोड़ सहधर्मनि से जब माता का रूप धरा ;
दे संतति तू परिवार जनों को, नई शृष्टि, गढ़ जाती है .
और इसी रूप में हे जगधात्री, जननी तू कहलाती है .
स्वाभिमान की मूरत है तू , नमन तुझे है मत्था टेक ,
इसीलिए मैंने ये माना, नारी तेरे रूप अनेक .
एक रूप तेरा ऐसा देखा जिसे देख अचम्भा होता है;
नारी अपनी नारि खो रही, यह देख-देख दिल रोता है ;
कहीं मूरत है तू शर्मो-हया की, कहीं शर्म को शर्मसार किया;
बेफिक्र नुमाइस करती तन की, शान-ए-अजदाद बेजार किया.
देख रूप ये कलम रुक गई, क्या लिखू मैं तुझपर लेख ,
और इसीलिए मैंने ये माना नारी तेरे रूप अनेक .
शब्दार्थ :-
१.निगह्वा- नजर रखना. २. लव – होंठ , ३. शूली- फांसी, ४. नीर- आंसू , ५.बानो- सभ्य स्त्री, ६. सहधर्मिणी- पत्नी, ७. संतति- संतान , ८. अचम्भा- आश्चर्य, १०.नारि- नारी की गरिमा. ११. नुमाईस – दिखावा, १२.शान-ए-अजदाद – बाप-दादा की इज्जत,१३. बेजार- तार-तार करना.
Poet :- Deepak “ Dahal“
Editor in chief,
Star Hind News, Bhagalpur, Bihar